नारद - नारायण - संवाद में पार्वतीजी के पूछने पर महादेवजी के द्वारा श्रीराधा के प्रादुर्भाव एवं महत्त्व आदि का वर्णन
राधा जी का वर्णन:-
नारदजी बोले- भगवान् नारायण के ध्यान में तत्पर रहने वाले महाभाग मुनिवर नारायण ! आप नारायण के ही अंश हैं । अतः भगवन् ! आप नारायण से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये। सुरभी का उपाख्यान अत्यन्त मनोहर है , उसे मैंने सुन लिया । वह समस्त पुराणों में गोपनीय कहा गया है । पुराणवेत्ताओं ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है । अब मैं श्रीराधा का परम उत्तम आख्यान सुनना चाहता हूँ । उनके प्रादुर्भाव के प्रसङ्ग तथा उनके ध्यान , स्तोत्र और उत्तम कवच को भी सुनने की मेरी प्रबल इच्छा है । अतः आप इन सबका वर्णन कीजिये ।मुनिवर श्रीनारायण ने कहा - नारद ! पूर्वकाल की बात है , कैलास - शिखर पर सनातन भगवान् शंकर , जो सर्वस्वरूप , सबसे श्रेष्ठ , सिद्धों के स्वामी तथा सिद्धि दाता हैं , बैठे हुए थे । मुनि लोग भी उनकी स्तुति करके उनके पास ही बैठे थे ।
भगवान् शिव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था । उनके अधरों पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी । वे कुमार को परमात्मा श्रीकृष्ण के रासोत्सव का सरस आख्यान सुना रहे थे । उस प्रसङ्ग के श्रवण में कुमार की बड़ी रुचि थी । रासमण्डल का वर्णन चल रहा था ।
जब इस आख्यानकी समाप्ति हुई और अपनी बात प्रस्तुत करने का अवसर आया , उस समय सती - साध्वी पार्वती मन्द मुस्कान के साथ अपने प्राणवल्लभ के समक्ष प्रश्न उपस्थित करने को उद्यत हुई ।
पहले तो वे डरती हुई - सी स्वामी की स्तुति करने लगीं । फिर जब प्राणेश्वर ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया , तब वे देवेश्वरी महादेवी उमा महादेवजी के सामने वह अपूर्व राधिकोपाख्यान सुनाने के लिये अनुरोध करने लगी , जो पुराणों में भी परम दुर्लभ है ।
श्रीपार्वती बोलीं - नाथ ! मैंने आपके मुखारविन्द से पाश्चरात्र आदि सारे उत्तमोत्तम आगम , नीतिशास्त्र , योगियों के योगशास्त्र , सिद्धोंके सिद्धि - शास्त्र , नाना प्रकार के मनोहर तन्त्रशास्त्र , परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों के भक्तिशास्त्र तथा समस्त देवियों के चरित्र का श्रवण किया । अब मैं श्रीराधा का उत्तम आख्यान सुनना चाहती हूँ । श्रुति में कण्वशाखा के भीतर श्रीराधा की प्रशंसा संक्षेप से की गयी है , उसे मैंने आपके मुख से सुना है ; अब व्यास द्वारा वर्णित श्रीराधा की महत्ता सुनाइये ।
पहले आगमाख्यान के प्रसङ्ग में आपने मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार किया था । ईश्वर की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती । अतः आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव , ध्यान , उत्तम नाम - माहात्म्य , उत्तम पूजा - विधान , चरित्र , स्तोत्र , उत्तम कवच , आराधन - विधि तथा अभीष्ट पूजा - पद्धतिका इस समय वर्णन कीजिये ।
भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्त हूँ , अतः मुझे ये सब बातें अवश्य बताइये । साथ ही , इस बातपर भी प्रकाश डालिये कि आपने आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसङ्ग का वर्णन क्यों नहीं किया था ?
पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान् पशमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया । अपना सत्य भङ्ग होने के भय से वे मौन हो गये - चिन्ता में पड़ गये । उस समय उन्होंने अपने इष्टदेव करुणानिधान भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धाङ्गस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले - ' देवि ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने राधाख्यान के प्रसङ्गसे रोक दिया था , परंतु महेश्वरि ! तुम तो मेरा आधा अङ्ग हो ; अतः स्वरूपतः मुझसे भिन्न नहीं हो ।
इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसङ्ग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है । सतीशिरोमणे ! मेरे इष्टदेव की वल्लभा श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त गोपनीय , सुखद तथा श्रीकृष्णभक्ति प्रदान करनेवाला है । दुर्गे । वह सब पूर्वापर श्रेष्ठ प्रसङ्ग मैं जानता हूँ । मैं जिस रहस्य को जानता हूँ , उसे ब्रह्मा तथा नागराज शेष भी नहीं जानते । सनत्कुमार , सनातन , देवता , धर्म , देवेन्द्र , मुनीन्द्र , सिद्धेन्द्र तथा सिद्धपुङ्गवों को भी उसका ज्ञान नहीं है । सुरेश्वरि ! तुम मुझसे भी बलवती हो ; क्योंकि इस प्रसङ्ग को न सुनाने पर अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उद्यत हो गयी थीं । अतः मैं इस गोपनीय विषय को भी तुम से कहता हूँ । दुर्गे ! यह परम अद्भुत रहस्य है । मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ , सुनो । श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त पुण्यदायक तथा दुर्लभ है ।
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राधा जी का वर्णन:-
एक समय रासेश्वरी श्रीराधाजी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से मिलने को उत्सुक हुई । उस समय वे रत्नमय सिंहासन पर अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित होकर बैठी थीं । अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्र उनके श्रीअङ्गों की शोभा बढ़ा रहा था । उनकी मनोहर अङ्गकान्ति करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं को लज्जित कर रही थी । उनकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के सदृश जान पड़ती थी । वे अपनी ही दीप्ति से दमक रही थीं । शुद्धस्वरूपा श्रीराधा के अधरपर मन्द मुसकान खेल रही थी । उनकी दन्तपंक्ति बड़ी ही सुन्दर थी । उनका मुखारविन्द शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था । वे मालती - सुमनों की माला से मण्डित रमणीय केशपाश धारण करती थीं ।उनके गले की रत्नमयी माला ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान दीप्तिमती थी । कण्ठ में प्रकाशित शुभ मुक्ताहार गङ्गा की धवल धार के समान शोभा पा रहा था । रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने मन्द - मन्द मुस्कराती हुई अपनी उन प्रियतमा को देखा । प्राणवल्लभा पर दृष्टि पड़ते ही विश्वकान्त श्रीकृष्ण मिलन के लिये उत्सुक हो गये । परम मनोहर कान्तिवाले प्राणवल्लभ को देखते ही श्रीराधा उनके सामने दौड़ी गयीं । महेश्वरि ! उन्होंने अपने प्राणाराम की ओर धावन किया , इसीलिये पुराणवेत्ता महापुरुषों ने उनका ' राधा ' यह सार्थक नाम निश्चित किया ।
राधा श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधा की । वे दोनों परस्पर आराध्य और आराधक हैं । संतों का कथन है कि उनमें सभी दृष्टियों से पूर्णतः समता है ।
महेश्वरि !मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण रास में प्रियाजी के धावनकर्म का स्मरण करते हैं , इसीलिये वे उन्हें ' राधा ' कहते हैं , ऐसा मेरा अनुमान है । दुर्गे ! भक्त पुरुष ' रा ' शब्द के उच्चारण मात्र से परम दुर्लभ मुक्ति को पा लेता है और ' धा ' शब्द के उच्चारण से वह निश्चय ही श्रीहरि के चरणों में दौड़कर पहुँच जाता है ।
' रा ' का अर्थ है ' पाना ' और ' धा ' का अर्थ है ' निर्वाण ' ( मोक्ष ) भक्तजन उनसे निर्वाण मुक्ति पाता है , इसलिये उन्हें ' राधा ' कहा गया है । श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है । श्रीराधा के वामांश - भाग से महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ है । वे ही शस्यकी अधिष्ठात्री देवी तथा गृहलक्ष्मी के रूप में भी आविर्भूत हुई हैं । देवी महालक्ष्मी चतुर्भुज विष्णु की पत्नी हैं और वैकुण्ठधाम में वास करती हैं ।
राजा को सम्पत्ति देनेवाली राजलक्ष्मी भी उन्हीं की अंशभूता हैं । राजलक्ष्मी को अंशभूता मर्त्यलक्ष्मी हैं , जो गृहस्थों के घर - घर में वास करती हैं । वे ही शस्याधिष्ठातृदेवी तथा वे ही गृहदेवी हैं । स्वयं श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रियतमा हैं तथा श्रीकृष्ण के ही वक्षःस्थल में वास करती हैं । वे उन परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी है ।
पार्वति ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कोटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् मिथ्या ही है । केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं ; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो वे सबसे प्रधान , परमात्मा , परमेश्वर , सबके आदिकारण , सर्वपूज्य , निरीह तथा प्रकृति से परे विराजमान हैं । उनका नित्यरूप स्वेच्छामय है । वे भक्तों पर अनुग्रह करनेके लिये ही शरीर धारण करते हैं ।
श्रीकृष्ण से भित्र जो दूसरे - दूसरे देवता हैं ; उनका रूप प्राकृत तत्त्वों से ही गठित है । श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं । वे परम सौभाग्यशालिनी हैं । वे मूलप्रकृति परमेश्वरी श्रीराधा महाविष्णु की जननी हैं । संत पुरुष मानिनी राधा का सदा सेवन करते हैं । उनका चरणारविन्द ब्रह्मादि देवताओं के लिये परम दुर्लभ होनेपर भी भक्तजनों के लिये सदा सुलभ है । सुदामा के शापसे देवी श्रीराधा को गोलोक से इस भूतलपर आना पड़ा था । उस समय वे वृषभानु गोप के घर में अवतीर्ण हुई थीं । वहाँ उनकी माता कलावती थीं ।
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