हिरण्याक्ष के साथ वराहभगवान का युद्ध,hiranyansh aur varaha bhagwan ka yudh

हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान का युद्ध


आइये जाने है हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवन ने युद्ध क्यों किया :-


श्रीमैत्रेयजी ने कहा - तात ! वरुणजी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने उनके इस कथन पर कि ' तू उनके हाथसे मारा जायगा कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुंच गया ! वहाँ उसने विश्वविजयी वराह भगवान  को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा ।
वे अपने लाल - लाल चमकीले नेत्रों से उसके तेज को हरे लेते थे । उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हंस पड़ा और बोला , ' अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँ से आया!
फिर वराह जी से कहा , ' अरे नासमझ ! इधर आ , इस पृथ्वी को छोड़ दे , इसे विश्वविधाता ब्रह्माजी ने हम रसातल वासियों के हवाले कर दिया है । रे सूकररूपधारी सुराधम ! मेरे देखते - देखते तू इसे लेकर कुशल पूर्वक नहीं जा सकता ! तू माया से लुक - छिपकर ही दैत्यों  को जीत लेता और मार डालता है ।
क्या इसी से हमारे शत्रुओं  ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है ? मूढ़ । तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है । आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओ का शोक दूर करूंगा! जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायगा , तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं , वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षोकी भांति स्वयं ही नष्ट हो जायेगे !

हिरण्याक्ष भगवान को दुर्वचन - बाणों से छेदे जा रहा था ; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये , जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनी सहित गजराज,जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे , तब प्राह जैसे गज का पीछा करता है , उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ी वाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर . वह कहने लगा , ' तुझे भागने लजा नहीं आती ? सच - है , असत् पुरुषों के लिये कौन - सा काम न करने - योग्य है ?
भगवान्ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार - योग्य स्थानमें स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधार शक्ति का सहार किया । उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति की और देवताओने फूल । बरसाये! तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने -पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से , जो सोनेके आभूषण और अद्भुत - कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था , अत्यन्त क्रोधपूर्वक हंसते श्रीभगवान्ने कहा - अरे ! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं , जो तुझ जैसे ग्राम - सिंहों ( कुत्तों ) को ढूँढ़ते फिरते हैं । दुष्ट ! वीर पुरुष तुझ - जैसे मृत्यु - पाश में बंधे हुए , अभागे जीवोंकी आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं देते - हाँ , हम रसातल वासियो की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भयसे यहाँ भाग आये है ।

हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहा कि तेरे - जैसे अद्वितीय वीरके सामने युद्धमें ठहर सके । फिर भी हम जैसे - तैसे तेरे सामने खड़े है ; तुझ - जैसे बलवानोंसे वैर बांधकर हम जा भी कहाँ सकते है ? तू पैदल बीरोका सरदार है , इसलिये अब निःशङ्क होकर - उधेड़ - बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई - बन्धुओंक आँसू पोछ । अब इसमें देर न कर । जो अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता , वह असभ्य है - भले आदमियों में बैठने लायक नहीं है ॥१२ ॥ मैत्रेयजी कहते हैं - विदुरजी ! जब भगवान्ने रोष से उस दैत्यका इस प्रकार खुब उपहास और तिरस्कार किया , तब वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे तिलमिला उठा ।

 वह खीझकर लंबी - लंबी साँसे लेने लगा , उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठी और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान्पर गदा का प्रहार किया! किन्तु भगवान्ने अपनी छाती पर चलायी हुयी शत्रुकी गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया - ठीक वैसे ही , जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है ।

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 फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार - बार घुमाने लगा , तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे सौम्यस्वभाव विदुरजी ! तब प्रभुने शत्रुको दायीं भौह पर गदा की चोट की , किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया !
इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे ! उस समय उन दोनों में ही जीतनेको होड़ लग गयी , दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे , अपने अझोके घावों से बहनेवाले रुधिर को गन्ध से दोनों का ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह - तरहके पैंतरे बदल रहे थे । इस प्रकार गौके लिये आपसमें लड़नेवाले दो साँड़ों के समान उन दोनों में एक - दूसरे को जीतने को इच्छा से बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ !

विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बांधकर युद्ध करने लगे , तब उसे देखनेके लिये वहाँ ऋषियोंक सहित ब्रह्माजी आये !
वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे । जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है ,उसमें भयका नाम भी नहीं है , वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है , तब वे भगवान् आदिसूकर रूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे !

श्रीब्रह्माजीने कहा - देव ! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है । इस समय यह आपके चरणोंकी शरण में रहनेवाले देवताओं , ब्राह्मणों , गौओं तथा अन्य निरपराध जीवोंको बहुत ही हानि पहुंचानेवाला , दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है । इसकी जोड़का और कोई योद्धा नहीं है , इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें घूम रहा है !

 यह दुष्ट बड़ा ही मायावी , घमण्डी और निरङ्कुश है । बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए सौंपसे खेलता है , वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ! देव ! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धि की वेला को पाकर प्रबल हो , उससे पहले - पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये !प्रभो ! देखिये , लोको का संहार करनेवाली सन्ध्याकी भयङ्कर वेला आना ही चाहती है । सर्वात्मन् ! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओंको विजय प्रदान कीजिये ! 
इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है । अतः अपने सुहद् हमलोगोंके कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लोजिये!
प्रभो ! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है । हमलोगोंके बड़े भाग्य है कि यह स्वयं ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुंचा है । अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकोंको शान्ति प्रदान कीजिये !




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