वसुदेव -देवकी का विवाह,भारपीड़ित पृथिवी का देवताओ के सहित श्रीरसमुद्र जाना और भगवान का प्रकट होकर उसे धैर्य बाँधना , कृष्णावतार का उपक्रम

वसुदेव -देवकी का विवाह,भारपीड़ित पृथिवी का देवताओ के सहित श्रीरसमुद्र जाना और भगवान का प्रकट होकर उसे धैर्य बाँधना , कृष्णावतार का उपक्रम 

किस कुल में भगवान विष्णु का अंशावतार हुआ था:-


श्रीमैत्रेयजी बोले - भगवन्!  आपने राजाओंके सम्पूर्ण वंशों का विस्तार और उनके चरित्रों का क्रमशः यथावत वर्णन किया! अब, हे ब्रह्माणे।  यदुकुल में जो भगवान् विष्णु का अंशावतार हुआ था, उसे मैं तत्त्व और विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ! हे मुने।  भगवान् पुरुषोत्तम ने अपने अंशांश से पृथिवीपर अवतीर्ण के साथ जो - जो कर्म किए थे, उन सबका आप मुझे वर्णन किया। 


देवकी और वसुदेव जी का विवाह:-

श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय!  आप मुझसे जो पूछा गया है कि वह संसार में परम मंगलकारी भगवान् विष्णुके अंशावतार का चरित्र सुनो।  हे महामुने!  पूर्वकाल में देवक की महा यशालिनी पुत्री देवीस्वरूपा देवकी के साथ वसुदेवजी ने विवाह किया। 

कंस के लिए आकाशवाणी:-

वसुदेव और देवकीके वैवाहिक सम्बन्ध होने वाले अनन्तर [विदा होते समय] भोजनन्दन कंस सारथि बनकर उन दोनोंका माङगगलिक रथ हाँकने लगा। उसी समय मेघके समान गम्भीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंसको ऊँचे स्वर से सम्बोधन द्वारा यों बोली।  "अरे मूढ़! पति  के साथ रथपर बैठी हुई जो देवकीको के लिए जा रही है इसका आठवाँ इश तुम्हारा प्राण हर लेगा" । 
श्रीपराशरजी बोले - यह सुनते ही महाबली कंस [म्यानसे] खग निकालकर देवकी को मारनेके लिये उघत हुआ।  



वसुदेव जी ने कहा मैं सभी बालक आपको सौंप दूंगा:-

तब वसुदेवजी यों कहने लगे-"हे महाभाग! हे अनघ! आप देवकी का वध न करें; मैं इसके गर्भ से उत्पन्न हुए  सभी बालक आपको सौंप दूंगा  । 
श्रीपराशरजी बोले - हे द्विजोत्तम!  तब सत्य के गौरव से कंसें वसुदेवजी से 'बहुत अच्छा' कह देवकी का वध नहीं किया ! 


पृथ्वी का भार उतारने के लिए भगवान विष्णु जी ने अवतार लिया:-

इसी समय अत्यंत भावपूर्ण भार से पीडित होकर पृथिवी [गौ का रूप धारण कर] सुमेरुपर्वत पर भगवान के समूह में वहाँ उन्होंने ब्रह्माजीके सहित सभी देवताओंको प्रणामकर खेदपूर्वक करुण स्वर से बोलती हुई सारा वृतान्त कहा !
पृथवी बोली - जिस प्रकार अग्नि सुवर्ण का और सूर्य गो (किरण) -समहू का  परमगुरु है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकों के गुरु श्रीनारायण मेरे गुरु हैं! जिस वे प्रजापतियों के पति और पूर्वजो के पूर्वज ब्रह्माजी हैं और वे ही कला - काष्ठ - निमेष - स्वरूप अव्यक्त मूर्तिमान् काल हैं।  हे देवश्रेष्ठी!  आप सब लोगोंका समूह भी उन्हीं का अंशरूप है! आदित्य, मरुद्गण, साध्यगण, रुद्र, वसु, अग्नि, पितृगण और अत्रि आदि प्रजापतिगण - ये सब अप्रमेय महात्मा विष्णुके ही रूप हैं! 
यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, सर्प, दानव, गन्धर्व और अप्सरा आदि भी महात्मा विष्णु के ही रूप हैं!  ग्रह, नक्षत्र और तारागणों से प्रतिबिंबित आकाश, अग्नि, जल, वायु, मैं और इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय - यह सारा जगत विष्णुमय ही है,! तथापि हालांकि उन कई रूपधारी विष्णु के ये रूप समुद्रकी तरंगों के समान रात - दिन एक - दूसरे के बाध्य - बाधक होते रहते हैं!  इस समय कालनेमि आदि दैत्यगण मर्त्यलोक पर अधिकार जमाकर अहर्निश जनता को क्लेश कर रहे हैं। जिस कालनेमि को सामर्थ्यवान् भगवान् विष्णु ने मारा था, इस समय उसी उग्रसेन के पुत्र महान् असुर कंस के रूप में उत्पन्न हुआ है।  अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्द, बलिका पुत्र अति भयंकर बाणासुर और और भी जो महाबलवान् दुरात्मा राक्षस राजाओं के घर में उत्पन्न हो गये हैं, उनकी मैं गणना नहीं कर सकती।
हे दिव्यमूर्तिधारी देवगण!  इस समय मेरे ऊपर महाबलवान् और गर्वीले दैत्योराजो की अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं।  हे अमरेश्वरो!  मैं आप लोगों को यह बतलाये देती हूँ कि अब मैं उनके अत्यंत भार से पीडित होकर अपने को धारण करने में सर्वथा असमर्थ हूँ! अतः हे महाभागगण !  आप लोग मेरे भार उतारने का अब कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं अत्यंत व्याकुल होकर रसातल को न चली जाऊँ!  पृथिवीके इन वाक्यों को सुनकर उसके भार उतारने के विषयमें सभी देवताओं की प्रेरणा से भगवान् ब्रह्माजी ने कहना आरम्भ किया।
ब्रह्माजी बोले - हे देवगण!  पृथिवीने जो कुछ कहा है वह सर्वथा सत्य ही है, वास्तव में मैं, शंकर और आप सब लोग नारायणरूप ही हैं! उनकी जो - जो विभूतियाँ हैं, उनकी परस्पर दृढ़ता और अधिकता ही बाध्य और बाधक रूप से रहा करती है।  इसलिए आओ, अब हम लोग क्षीर सागर के पवित्र तटपर चलें, वहाँ श्रीहरि की  आराधना कर यह सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे निवेदन कर दें! वे  विश्वरूप सर्वथा संसारके हित के लिये ही अपने शुद्ध सत्वांश अवतिर्ण होकर  पृथिवी में  धर्मकी स्थापना करते हैं!





ब्रह्माजी ने एकाग्रचित से श्रीगरुड़ध्वज भगवान की स्तुति करने लगे:-

श्रीपराशरजी बोले - ऐसे कहकर देवताओं  के सहित पितामह ब्रह्माजी वहाँ गये  और एकाग्रचित्त से श्रीगरुडध्वज भगवान की  इस प्रकार स्तुति करने लगे!
ब्रह्माजी बोले - हे वेदवाणी के अगोचर प्रभो!  परा और अपरा - ये दोनों विद्याएँ आप ही हैं।  हे नाथ!  वे दोनों आप ही के मूर्त और अमूर्त  रूप हैं।  हे  अंत्यंत  सूक्ष्म!  हे विराट्स्वरूप !  हे सर्व !  हे सर्वज्ञ!  शब्दब्रह्म और परब्रह्म - ये दोनों आप ब्रह्ममयक ही रूप हैं! आप ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं और आप ही शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष - शास्त्र हैं।  हे प्रभो!  हे अधोक्षज!  इतिहास, पुराण, व्याकरण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र - ये सब भी आप ही हैं!  हे अघापते!  जीवात्मा, परमात्मा, स्थूल - सूक्ष्म - देह और उनका कारण अव्यक्त इन सबके विचार से युक्त जो अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूप का बोधक [तत्त्वमसि] वाक्य है, वह भी आपसे भिन्न नहीं है।
आप अव्यक्त, अनिर्वाच्य, अचिन्त्य, नाम वर्ण से रहित, हाथ - पाँव और रूप से हीन, शुद्ध, सनातन और परसे भी पर हैं!आप कर्णहीन होकर भी सुनते हैं, नेत्रहीन होकर भी देखते हैं, एक साथ भी कई रूपों में प्रकट होते हैं, हस्त पादादि से रहित होकर भी बड़ी वेगशाली और ग्रहण करने वाले हैं तथा सबके अवेद्य होकर  भी सबको जानने वाले हैं!  

हे परात्मन !  जिस धीर पुरुष की बुद्धि आपके श्रेष्ठतम रूप से पृथक् और कुछ भी नहीं देखती, आपके अणु से भी विषाणु और दृश्य - स्वरूपको देखनेवाले उस पुरुषकी आत्यन्तिक अज्ञाननिष्ठ हो जाती है! आप विश्व के  केंद्र और त्रिभुवनके रक्षक हैं;  सम्पूर्ण भूत आप ही में स्थित हैं और जो कुछ भूत, भविष्य और अणु से भी अणु है वह सब आप प्रकृति से परे एकमात्र परमपुरुष ही हैं! आप ही चार प्रकार का अग्नि के साथ संसार को तेज और विभूति दान करते हैं। 
हे अन्नमूर्ते!  आपकी नेत्र  सब ओर हैं।  हे धत:!  आप ही [त्रिविक्रमावतार ] तीनों लोक अपने तीन पग रखते हैं।  हे ईश!  जिस प्रकार एक ही अविकारी अग्नि विकृत के साथ नाना प्रकार से प्रज्वलित होता है, उसी प्रकार सर्वगतरूप एक आप ही अनन्त रूप धारण कर लेते हैं।  एकमात्र जो श्रेष्ठ परमपद है;  वह आप ही हैं, ज्ञानी पुरुष ज्ञानदृष्टि से देखे जाने योग्य आप ही देखा करते हैं।  
हे  परात्मन !  भूत और भविष्यत् जो कुछ स्वरूप है वह आपके अतिरिक्त है और कुछ भी नहीं है! आप व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, समष्टि और व्यष्टिरूप हैं और आप ही सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, आलक्तिमान् और सम्पूर्ण ज्ञान, बल और ऐश्वर्य से युक्त हैं! आप ह्रास और वृद्धिसे रहित, स्वाधीन, अनादि और जितेन्द्रिय हैं और आपके अंदर श्रम, तन्द्रा, भय, क्रोध और काम आदि नहीं हैं! आप अनिन्द्य, अप्राप्य, निराधार और अव्याहत गति हैं, आप सबके स्वामी, अन्य ब्रह्मादि के आश्रय और सूर्यादि तेजों के तेज और अविनाशी हैं।
आप समस्त  आवरणश्रम, असहायों के पलक और सम्पूर्ण महाविभुतियों के आधार हैं, हे पुरुषोत्तम!  आपको नमस्कार है।  आप किसी कारण, अकारण या कारणाकारण से शरीर - ग्रहण नहीं करते, बल्कि केवल धर्म - रक्षाके लिये ही करते हैं!
श्रीपराशरजी बोले - इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान् अज अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए ब्रह्माजीसे प्रसन्नचित्त से कहने लगे!  
श्रीभगवान् बोले - हे ब्रह्मन्!  देवताओं के सहित तुमको मुझसे कौन वस्तु की इच्छा हो वह सब कहो और उसे सिद्ध हुआ ही समझो! 


विश्वरूप को देखकर सभी देवताओं के भय से विनीत हो जाने वाले ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने लगे:-

श्रीपराशरजी बोले - तब श्रीहरिके उस दिव्य विश्वरूप को देखकर सभी देवताओं के भय से विनीत हो जाने वाले ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने लगे! 
ब्रह्माजी बोले - हे सहस्रबाहो!  हे अनंतमुख एवं  चरणवाले!  आपको हजारों बार नमस्कार हो।  हे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करनेवाले!  हे अप्रमेय!  आपको बारम्बार नमस्कार हो!   हे भगवन्!  आप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, गुरु से भी गुरु और अति बृहत् प्रमाण हैं, और प्रधान (प्रकृति) महत्तत्त्व और अहंकारादि में प्रधानभूत पुरुष से भी परे हैं;  हे भगवन्!  आप हमर प्रसन्न होइये!  
हे देव!  इस पृथिवी पर्वतरूपी मूल बंधन पर उत्पन्न हुए महान् असुरों के उत्पातसे शिथिल हो गए हैं।  अतः हे अपरिमितवी!  यह संसार का भार उतारनेके लिए आपकी शरण में आयी है! हे सुरनाथ!  हम और यह इन्द्र, अश्विनीकुमार और वरुण, ये रुद्रगण, वसुगण, सूर्य, वायु और अग्नि आदि अन्य सभी देवगण यहाँ उपस्थित हैं, इन्हें या मुझे जो कुछ करना उचित हो उन सब मान्यताओं हेतु आज्ञा देना।  हे ईश!  आपहीकी ओबका पालन करते हुए हम सम्पूर्ण दोषों से मुक्त हो सकेंगे!



श्रीकृष्ण का श्याम रंग क्यों है, इसके पीछे की कहानी:-

श्रीपराशरजी बोले - हे महामुने!  इस प्रकार स्तुति किए जाने वाले भगवान् भगवान ने अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े! और देवताओं से बोले - 'मेरे ये दोनों केश पृथिवी पर अवतार लेकर पृथिवी के भाररूप कष्ट को दूर करेंगे!  सब देवगण अपने - अपने अंशों से पृथिवी पर अवतार लेकर अपने से पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत्त देत्यों के साथ युद्ध करें। तब तक निःसंदेह  पृथिवी तल पर  सम्पूर्ण दैत्यगण मेरे दृष्टिपात से दलित होकर क्षीण हो जायँगे!


आठवें गर्भ से श्रीकृष्ण जी का जन्म:-

 वसुदेवजी की जो देवी के समान देवकी नामकी भार्या है उसके आठवें गर्भ से मेरा यह (श्याम) केश अवतार लेगा लेगा ! और इस प्रकार यहाँ अवतार लेकर यह कालनेमि के अवतार  कंस का वध करेगा। 
'ऐसा कहाकर श्रीहरि अंतर्धान हो गए!  हे महामुने!  भगवान के अदृश्य हो जानेवाला उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरुपर्वत पर चले गए और फिर पृथिवी पर अवतीर्ण हुए!  
इसी समय भगवान नारदजी ने कंस से आकर कहा कि देवकी के आठवें गर्भ में भगवान् धरणीधर जन्म लेंगे! नारदजी से यह समाचार पाकर कंस ने कुपित होकर  वसुदेव और देवकी को कारागृह में  बन्द कर दिया ।  


पहले छः गर्भ किसके थे और सातवां  अंश किसका था :-

 हे द्विज!  वसुदेवजी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कहा दिया था, अपने प्रत्येक पुत्रको कंस को सौंपते रहे ! ऐसा सुना जाता है कि पहले छह: गर्भ हिरण्यकशिपु के पुत्र थे।  भगवान् विष्णु की प्रेरणा से योगनिद्रा उन्हें क्रमशः: गर्भ में स्थित करती रही  है! जिस अविद्या - रूपिणी से सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान विष्णुकी महामाया है, उससे  श्रीहरि ने कहा- श्रीभगवान् बोले - हे निद्र्रे!  जा, मेरी आज्ञा से तू पाताल में स्थित छ: गर्भो को एक - एक करके देवकीकी कुक्षिमें स्थापित कर दे ।  कंसद्वारा उन सबके मारे जाने वाले शेष नामक मेरा अंश अपने अंशांश से देवकी के सातवें गर्भ में स्थित होगा!

 भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको रात्रि के समय श्रीकृष्ण ने जन्म लिया:-

 हे देवि!  गोकुलमें वसुदेवजीकी जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदरमें उस सातवें गर्भ को ले जाकर तू  इस प्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसी के जठर से उत्पन्न हुए के समान जान पड़े!  उसके विषय में संसार यही कह रहा है कि कारागार की बन्द होने के कारण भोजराज कंस के भयसे देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया।  वह श्वेत शैलशिखर के समान वीर पुरुष गर्भ से आकर्षण किए जानेके कारण संसार में 'संकर्षण' नामसे प्रसिद्ध होगा ! तन्नन्तर, हे शुभे!  देवकी के आठवें भाव में मैं स्थित होऊँगा।  


वसुदेवजी का श्रीकृष्ण को यशोदा के शयनगृह में ले जाना:-

उस समय तू भी तुरंत ही यशोदा के गर्भ में चली जाना । वर्षा ऋतुओं भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको रात्रिके समय मैं जन्म लूँगा और तू नवमीको उत्पन्न होगा होगी! हे अनिन्दिते!  उस समय मेरी शक्ति से अपनी मति  फिर जाने के कारण वसुदेवजी मुझे तो यशोदा के और तुझे देवकी के शयनगृहमें ले जायँगे! तब हे देवि!  कंस तुझे पकड़कर पर्वत - शिलापर पटक देगा;  उसके पटकते ही तू आकाशमें स्थित हो जायगी। उस समय मेरे गौरव से सहस्रनयन इन्द्र सिर झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर तुझे भगिनीरूप से स्वीकार करेंगा! 
 तू  भी शुम्भ, निशुम्भ आदि सहस्रों दैत्योंको मारकर अपने अनेक स्थानों को पृथक्वी को सुशोभित करेंगी!  तू ही भूति, धूप, क्षान्ति और कान्ति है;  तू ही आकाश, पृथवी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है; इनके  अतिरिक्त संसार में  और भी जो कोई शक्ति  है वह सब तू  ही है ।।  
जो लोग प्रात: काल और सायंकालमें अत्यंत नम्रतापूर्वक तुझे आर्य, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे, उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपा पूर्ण हो जायँगी॥  मदिरा और मांसकी भेंट चढ़ाने से और भक्ष और भक्षण पदार्थो द्वारा पूजा करनेसे प्रसन्न होकर साथ मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देगी!  तेरे  द्वारा दी हुई वे सभी कामनाएँ मेरी कृपासे निस्सन्देह पूर्ण होंगी।  हे देवि!  अब तू मेरे बतलाये हुए स्थान को जा! 

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