सात पाताललोको का वर्णन
पुराण के अनुसार भूलोक के नीचे कितने लोक है,आइए जानते है |
श्रीपराशरजी बोले - हे द्विज ! मैंने तुमसे यह पृथिवीका विस्तार कहा ; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्र योजन कही जाती है| हे मुनिसत्तम ! अतल , वितल , नितल , गभस्तिमान् , महातल , सुतल और पाताल - इन सातोंमेंसे प्रत्येक दस - दस सहस्र योजनकी दूरीपर है| हे मैत्रेय ! सुन्दर महलोंसे सुशोभित वहाँकी भूमियाँ शुक्ल , कृष्ण , अरुण और पीत वर्णकी तथा शर्करामयी ( कँकरीली ) , शैली ( पत्थरकी ) और सुवर्णमयी है!
हे महामुने ! उनमें दानव , दैत्य , यक्ष और बड़े - बड़े नाग आदिकोंकी सैकड़ों जातियाँ निवास करती हैं! एक बार नारदजीने पाताललोकसे स्वर्गमें आकर वहाँके निवासियोंसे कहा था कि ' पाताल तो स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है'!जहाँ नागगणके आभूषणोंमें सुन्दर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई हैं उस पातालको किसके समान कहें ?
पाताललोक का सुन्दर वर्णन :
जहाँ - तहाँ दैत्य और दानवोंकी कन्याओंसे सुशोभित पाताललोकमें किस मुक्त पुरुषकी भी प्रीति न होगी। जहाँ दिनमें सूर्यकी किरणें केवल प्रकाश ही करती हैं , घाम नहीं करतीं ; तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणोंसे शीत नहीं होता , केवल चाँदनी ही फैलती है । जहाँ भक्ष्य , भोज्य और महापानादिके भोगोंसे आनन्दित सो तथा दानवादिकोंको समय जाता हुआ भी प्रतीत नहीं होता।जहाँ सुन्दर वन , नदियाँ , रमणीय सरोवर और कमलों के वन हैं , जहाँ नरकोकिलोंकी सुमधुर कूक गूंजती है एवं आकाश मनोहारी है। और हे द्विज ! जहाँ पातालनिवासी दैत्य , दानव एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण , सुगन्धमय अनुलेपन , वीणा , वेणु और मृदंगादिके स्वर तथा तूर्य - ये सब एवं भाग्यशालियोंके भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते हैं।
पातालोंके नीचे विष्णुभगवान्का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणोंका दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते! जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण ' अनन्त ' कहकर बखान करते हैं वे अति निर्मल , स्पष्ट स्वस्तिक चिह्नोंसे विभूषित तथा सहस्र सिरवाले हैं। जो अपने फणोंकी सहस्त्र मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए संसारके कल्याणके लिये समस्त असुरोंको वीर्यहीन करते रहते हैं । मदके कारण अरुण नयन , सदैव एक ही कुण्डल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वतके समान सुशोभित हैं।
मदसे उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारोंसे सुशोभित होकर मेघमाला और गंगाप्रवाहसे युक्त दूसरे कैलास पर्वतके समान विराजमान हैं। जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये हैं तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती हैं । कल्पान्तमें जिनके मुखोंसे विषाग्निशिखाके समान देदीप्यमान संकर्षण नामक रुद्र निकलकर तीनो लोकोंका भक्षण कर जाता है। व समस्त देवगणोंसे वन्दित शेषभगवान् अशेष भूमण्डलको मुकुटवत् धारण किये हुए पाताल - तलमें विराजमान हैं। उनका बल - वीर्य , प्रभाव , स्वरूप ( तत्त्व ) और रूप ( आकार ) देवताओंसे भी नहीं जाना और कहा जा सकता। जिनके फणोंकी मणियोंकी आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथिवी फूलोंकी मालाके समान रखी उनके बल - वीर्यका वर्णन भला कौन करेगा ?
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जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते हैं उस समय समुद्र और वन आदिके सहित यह सम्पूर्ण पृथिवी चलायमान हो जाती है। इनके गुणोंका अन्त गन्धर्व , अप्सरा , सिद्ध , किन्नर , नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते ; इसलिये ये अविनाशी देव ' अनन्त ' कहलाते हैं । जिनका नाग - वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन पुनः - पुनः श्वास - वायुसे छूट - छूटकर दिशाओंको सुगन्धित करता रहता है। जिनकी आराधनासे पूर्वकालीन महर्षि गर्गने समस्त ज्योतिर्मण्डल ( ग्रह - नक्षत्रादि ) और शकुन - अपशकुनादि नैमित्तिक फलोंको तत्त्वतः जाना था। उन नागश्रेष्ठ शेषजीने इस पृथिवीको अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है , जो स्वयं भी देव , असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण लोकमाला ( पातालादि समस्त लोकों ) -को धारण किये हुए हैं ।
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